तिरा अंदेशा अफ़्लाकी नहीं है
तिरी पर्वाज़ लौलाकी नहीं है
ये माना अस्ल शाहीनी है तेरी
तिरी आँखों में बेबाकी नहीं है!
Javed Akhtar
Gulzar
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सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं
हर इक ज़र्रे में है शायद मकीं दिल
नया शिवाला
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी
न आते हमें इस में तकरार क्या थी
इस राज़ को इक मर्द-ए-फ़रंगी ने किया फ़ाश
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
हिमाला
ये है ख़ुलासा-ए-इल्म-ए-क़लंदरी कि हयात
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब