नहीं मक़ाम की ख़ूगर तबीअत-ए-आज़ाद
हवाए-ए-सैर मिसाल-ए-नसीम पैदा कर
हज़ार चश्मा तिरे संग-ए-राह से फूटे
ख़ुदी में डूब के ज़र्ब-ए-कलीम पैदा कर
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फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं
फ़क़्र के हैं मोजज़ात ताज ओ सरीर ओ सिपाह
समा सकता नहीं पहना-ए-फ़ितरत में मिरा सौदा
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
फ़रिश्ते आदम को जन्नत से रुख़्सत करते हैं
अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं
ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद
ज़मिस्तानी हवा में गरचे थी शमशीर की तेज़ी
मरक़द का शबिस्ताँ भी उसे रास न आया
वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है