ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद
कि आ रही है दमादम सदा-ए-कुन-फ़यकूँ
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'इक़बाल' ने कल अहल-ए-ख़याबाँ को सुनाया
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल
तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया
शुआ-ए-उम्मीद
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर
जवानों को मिरी आह-ए-सहर दे
पास था नाकामी-ए-सय्याद का ऐ हम-सफ़ीर
ज़माना अक़्ल को समझा हुआ है मिशअल-ए-राह
बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम
फ़रिश्ते आदम को जन्नत से रुख़्सत करते हैं
ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी