तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया
मैं ही तो एक राज़ था सीना-ए-काएनात में
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उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी
वो मेरा रौनक़-ए-महफ़िल कहाँ है
न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं
अजब नहीं कि ख़ुदा तक तिरी रसाई हो
अफ़्लाक से आता है नालों का जवाब आख़िर
मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
तिरे सीने में दम है दिल नहीं है