तू क़ादिर ओ आदिल है मगर तेरे जहाँ में
हैं तल्ख़ बहुत बंदा-ए-मज़दूर के औक़ात
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मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
कहा 'इक़बाल' ने शैख़-ए-हरम से
असर करे न करे सुन तो ले मिरी फ़रियाद
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर
हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़
ख़ुदी बुलंद थी उस ख़ूँ-गिरफ़्ता चीनी की
गोरिस्तान-ए-शाही
ज़मिस्तानी हवा में गरचे थी शमशीर की तेज़ी
ये दैर-ए-कुहन क्या है अम्बार-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक
न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
हर इक ज़र्रे में है शायद मकीं दिल