तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं
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फ़िरदौस में 'रूमी' से ये कहता था 'सनाई'
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
हज़रात-ए-इंसाँ
आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं
इल्म में भी सुरूर है लेकिन
ख़ुदी बुलंद थी उस ख़ूँ-गिरफ़्ता चीनी की
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
बदल के भेस फिर आते हैं हर ज़माने में
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
जमाल-ए-इश्क़-ओ-मस्ती नय-नवाज़ी