फ़िरदौस में रूमी से ये कहता था 'सनाई'
मशरिक़ में अभी तक है वही कासा वही आश
'हल्लाज' की लेकिन ये रिवायत है कि आख़िर
इक मर्द-ए-क़लंदर ने किया राज़-ए-ख़ुदी फ़ाश
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न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं
औरत
अजब नहीं कि ख़ुदा तक तिरी रसाई हो
जवानों को मिरी आह-ए-सहर दे
मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए
अज़ाब-ए-दानिश-ए-हाज़िर से बा-ख़बर हूँ मैं
रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से
हिमाला
मकानी हूँ कि आज़ाद-ए-मकाँ हूँ
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है