मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
ख़ुदा करे कि मिले शैख़ को भी ये तौफ़ीक़
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कभी आवारा ओ बे-ख़ानुमाँ इश्क़
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सहरा
हाँ दिखा दे ऐ तसव्वुर फिर वो सुब्ह ओ शाम तू
नया शिवाला
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश