कभी आवारा ओ बे-ख़ानुमाँ इश्क़
कभी शाह-ए-शहाँ नौ-शेरवाँ इश्क़
कभी मैदाँ में आता है ज़िरा-पोश
कभी उर्यां ओ बे-तेग़-ओ-सिनाँ इश्क़
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ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
ज़मिस्तानी हवा में गरचे थी शमशीर की तेज़ी
न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
एजाज़ है किसी का या गर्दिश-ए-ज़माना
नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ख़ुदी हो इल्म से मोहकम तो ग़ैरत-ए-जिब्रील
रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत फ़क़ीरों की
परेशाँ कारोबार-ए-आश्नाई
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी
चमन में रख़्त-ए-गुल शबनम से तर है