तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू
या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर
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फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं और कहीं ज़ातें हैं
उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर
गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा
रूह-ए-अर्ज़ी आदम का इस्तिक़बाल करती है
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
हज़रात-ए-इंसाँ
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
जमाल-ए-इश्क़-ओ-मस्ती नय-नवाज़ी
महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं