मरक़द का शबिस्ताँ भी उसे रास न आया
आराम क़लंदर को तह-ए-ख़ाक नहीं है
ख़ामोशी-ए-अफ़्लाक तो है क़ब्र में लेकिन
बे-क़ैदी ओ पहनाई-ए-अफ़्लाक नहीं है
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तिरे सीने में दम है दिल नहीं है
तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया
सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
मानिंद-ए-सहर सेहन-ए-गुलिस्ताँ में क़दम रख
पास था नाकामी-ए-सय्याद का ऐ हम-सफ़ीर
बदल के भेस फिर आते हैं हर ज़माने में
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
ख़ुदी की ख़ल्वतों में गुम रहा मैं
नानक
समुंदर से मिले प्यासे को शबनम
तरीक़-ए-अहल-ए-दुनिया है गिला-शिकवा ज़माने का
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे