मानिंद-ए-सहर सेहन-ए-गुलिस्ताँ में क़दम रख
आए तह-ए-पा गौहर-ए-शबनम तो न टूटे
हो कोह-ओ-बयाबाँ से हम-आग़ोश व-लेकिन
हाथों से तिरे दामन-ए-अफ़्लाक न छूटे
Gulzar
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उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
अजब नहीं कि ख़ुदा तक तिरी रसाई हो
रूह-ए-अर्ज़ी आदम का इस्तिक़बाल करती है
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं
इल्म में भी सुरूर है लेकिन
इश्क़ से पैदा नवा-ए-ज़िंदगी में ज़ेर-ओ-बम
निगाह-ए-इश्क़ दिल-ए-ज़िंदा की तलाश में है
किसे ख़बर कि सफ़ीने डुबो चुकी कितने
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से
मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली