अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं
इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख
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रम्ज़-ओ-ईमा इस ज़माने के लिए मौज़ूँ नहीं
ढूँड रहा है फ़रंग ऐश-ए-जहाँ का दवाम
रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
कोई देखे तो मेरी नय-नवाज़ी
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है
यही आदम है सुल्ताँ बहर-ओ-बर का
फ़िरदौस में 'रूमी' से ये कहता था 'सनाई'