माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख
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मार्च 1907
नहीं मक़ाम की ख़ूगर तबीअत-ए-आज़ाद
कहा 'इक़बाल' ने शैख़-ए-हरम से
हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में
वो कल के ग़म ओ ऐश पे कुछ हक़ नहीं रखता
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं
यक़ीं मिस्ल-ए-ख़लील आतिश-नशीनी