चश्मे की तरह फूटा और आप ही बह निकला
रखता भला मैं कब तक आँखों में निहाँ पानी
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नया शहर
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
हद-ए-नज़र से मिरा आसमाँ है पोशीदा
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
ज़मीं का रिज़्क़ हूँ लेकिन नज़र फ़लक पर है
आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे
जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
सैल-ए-ज़माँ में डूब गए मशहूर-ए-ज़माना लोग
पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से