दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
कि जैसे आग सुलगने लगे गुलाबों में
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शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
कासा-लेसों ने जो थी नज़्र उतारी तेरी
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
सफ़ीना ले गए मौजों की गर्म-जोशी में
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
दुख के ताक़ पे शाम ढले
चश्मे की तरह फूटा और आप ही बह निकला
एक ख़्वाहिश
उस की अना के बुत को बड़ा कर के देखते