दुख के ताक़ पे शाम ढले
किस ने दिया जलाया था
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उस की अना के बुत को बड़ा कर के देखते
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
सियाहियों का नगर रौशनी से अट जाए
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली
जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'