चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
यक़ीं गुमान में गुम है गुमाँ है पोशीदा
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आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
मौसम सर्द हवाओं का
घुप-अँधेरे में भी उस का जिस्म था चाँदी का शहर
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
हद-ए-नज़र से मिरा आसमाँ है पोशीदा
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'