शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
जिस हाल में हो ज़िंदा रहो और ख़ुश रहो
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ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
सियाहियों का नगर रौशनी से अट जाए
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक
हम ने हर सम्त बिछा रक्खी हैं आँखें अपनी
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
कल शाम परिंदों को उड़ते हुए यूँ देखा
एक ख़्वाहिश
दुश्मन तो मेरे तन से लहू चूसता रहा
मौसम सर्द हवाओं का