कल शाम परिंदों को उड़ते हुए यूँ देखा
बे-आब समुंदर में जैसे हो रवाँ पानी
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तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
ख़्वाबों की तफ़्सील बता कर जाएँगे
आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे
यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
मौसम सर्द हवाओं का
दुख के ताक़ पे शाम ढले
सैल-ए-ज़माँ में डूब गए मशहूर-ए-ज़माना लोग
उस की अना के बुत को बड़ा कर के देखते
नया शहर
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम