ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
इस ज़मीं पर चाँद सूरज का नुमाइंदा हूँ मैं
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नया शहर
मौसम सर्द हवाओं का
उस की अना के बुत को बड़ा कर के देखते
आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे
कासा-लेसों ने जो थी नज़्र उतारी तेरी
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
दीवार पर लिखा न पढ़ो और ख़ुश रहो
सैल-ए-ज़माँ में डूब गए मशहूर-ए-ज़माना लोग
सफ़ीना ले गए मौजों की गर्म-जोशी में
आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक
जो फूल झड़ गए थे जो आँसू बिखर गए
यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर