जो फूल झड़ गए थे जो आँसू बिखर गए
ख़ाक-ए-चमन से उन का पता पूछता रहा
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दीवार पर लिखा न पढ़ो और ख़ुश रहो
एक ख़्वाहिश
दुख के ताक़ पे शाम ढले
जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
सियाहियों का नगर रौशनी से अट जाए
ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद