जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
उस की ताबीर मुझे दिल के जलाने से मिली
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आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
उस की अना के बुत को बड़ा कर के देखते
दीवार पर लिखा न पढ़ो और ख़ुश रहो
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
दुख के ताक़ पे शाम ढले
चश्मे की तरह फूटा और आप ही बह निकला
घुप-अँधेरे में भी उस का जिस्म था चाँदी का शहर
एक ख़्वाहिश