आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'
दूर तक तकती रहीं शाख़ों में आँखें सुब्ह तक
Habib Jalib
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तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
हद-ए-नज़र से मिरा आसमाँ है पोशीदा
ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
हम ने हर सम्त बिछा रक्खी हैं आँखें अपनी
एक ख़्वाहिश
दुश्मन तो मेरे तन से लहू चूसता रहा
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में