तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
ख़ुशबू है गर तो दिल में सिमट कर कलाम कर
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अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से
शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
सियाहियों का नगर रौशनी से अट जाए
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
दुख के ताक़ पे शाम ढले
एक ख़्वाहिश
दुश्मन तो मेरे तन से लहू चूसता रहा
आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
कासा-लेसों ने जो थी नज़्र उतारी तेरी