उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
तस्वीर उस की दिल से जुदा कर के देखते
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आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
सफ़ीना ले गए मौजों की गर्म-जोशी में
ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
नया शहर
चश्मे की तरह फूटा और आप ही बह निकला
कल शाम परिंदों को उड़ते हुए यूँ देखा
पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से
घुप-अँधेरे में भी उस का जिस्म था चाँदी का शहर
ख़्वाबों की तफ़्सील बता कर जाएँगे
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़