यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
दिल को तस्कीन तिरे लौट के आने से मिली
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शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
ख़्वाबों की तफ़्सील बता कर जाएँगे
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
घुप-अँधेरे में भी उस का जिस्म था चाँदी का शहर
दुश्मन तो मेरे तन से लहू चूसता रहा
उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली
कासा-लेसों ने जो थी नज़्र उतारी तेरी
आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'