ज़मीं का रिज़्क़ हूँ लेकिन नज़र फ़लक पर है
कहो फ़लक से मिरे रास्ते से हट जाए
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खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
चश्मे की तरह फूटा और आप ही बह निकला
दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
हम ने हर सम्त बिछा रक्खी हैं आँखें अपनी
दीवार पर लिखा न पढ़ो और ख़ुश रहो
नया शहर
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
कोई भी पेचीदगी हाएल नहीं अनवर-'सदीद'