खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
हज़ार भेद छुपा रक्खे थे ख़मोशी में
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तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
नया शहर
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
हम ने हर सम्त बिछा रक्खी हैं आँखें अपनी
यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक