हमीं ने रास्तों की ख़ाक छानी
हमीं आए हैं तेरे पास चल के
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तिरे बाज़ूओं का सहारा तो ले लूँ मगर उन में भी रच गई है थकन
तीरा-ओ-तार ख़लाओं में भटकता रहा ज़ेहन
जो उभरे वक़्त के साँचे में ढल के
ज़मीं से ता-ब-फ़लक कोई फ़ासला भी नहीं
रूह के जलते ख़राबे का मुदावा भी नहीं
कभी ख़याल के रिश्तों को भी टटोल के देख
गुल-दान
था ए'तिमाद-ए-हुस्न से तू इस क़दर तही
मैं जिस को राह दिखाऊँ वही हटाए मुझे
तितलियाँ रंगों का महशर हैं कभी सोचा न था