चाँद मेरे घर में उतरा था कहीं डूबा न था
ऐ मिरे सूरज अभी आना तिरा अच्छा न था
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ज़मीं से ता-ब-फ़लक कोई फ़ासला भी नहीं
ढूँढता हूँ सर-ए-सहरा-ए-तमन्ना ख़ुद को
मेरी सोच लरज़ उट्ठी है देख के प्यार का ये आलम
तीरा-ओ-तार ख़लाओं में भटकता रहा ज़ेहन
कभी ख़याल के रिश्तों को भी टटोल के देख
रूह के जलते ख़राबे का मुदावा भी नहीं
हम भी नादाँ हैं समझते हैं कि छट जाएगी
था ए'तिमाद-ए-हुस्न से तू इस क़दर तही
हमीं ने रास्तों की ख़ाक छानी
जो उभरे वक़्त के साँचे में ढल के