हम ने हर ख़्वाब को ताबीर अता की 'असलम'
वर्ना मुमकिन था कि हर नक़्श अधूरा होता
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Gulzar
Wasi Shah
Parveen Shakir
Javed Akhtar
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(804) Peoples Rate This
ज़रा सी बात पे क्या क्या फ़साना-साज़ी है
दीवार-ए-ख़स्तगी हूँ मुझे हाथ मत लगा
गुबार-ए-एहसास-ए-पेश-ओ-पस की अगर ये बारीक तह हटाएँ
कुछ तो ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती में उजाला होता
मुझे तो ये भी फ़रेब-ए-हवास लगता है
कभी ऐसा तमव्वुज तुम ने देखा है
हमारे हाथ फ़क़त रेत के सदफ़ आए
ख़फ़ा न हो कि तिरा हुस्न ही कुछ ऐसा था
रग-ए-हर-साज़ ये कहती है कि ऐ नग़्मा-तराज़
मैं ने रोका भी नहीं और वो ठहरा भी नहीं
जू-ए-नग़्मात पे तस्वीर सी लर्ज़ां देखी
फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना क्या है