एक होने की क़स्में खाई जाएँ
और आख़िर में कुछ दिया लिया जाए
Parveen Shakir
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Gulzar
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Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Jaun Eliya
Wasi Shah
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कोई भी शक्ल मिरे दिल में उतर सकती है
रात की आग़ोश से मानूस इतने हो गए
ख़ुद पर हराम समझा समर के हुसूल को
वैसे तो ईमान है मेरा उन बाँहों की गुंजाइश पर
बहुत ग़नीमत हैं हम से मिलने कभी कभी के ये आने वाले
गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
बाग़ से झूले उतर गए
मंज़र-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ है दम-ए-रुख़्सत-ए-ख़्वाब
भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है
महसूस कर लिया था भँवर की थकान को
जाते हुए नहीं रहा फिर भी हमारे ध्यान में
मेरी नुमू है तेरे तग़ाफ़ुल से वाबस्ता