अज़ाब होती हैं अक्सर शबाब की घड़ियाँ
गुलाब अपनी ही ख़ुश्बू से डरने लगते हैं
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धानी सुरमई सब्ज़ गुलाबी जैसे माँ का आँचल शाम
क़ातिल की सारी साज़िशें नाकाम ही रहीं
हर शख़्स को गुमान कि मंज़िल नहीं है दूर
लहू का आख़िरी क़तरा निचोड़ने पर भी
आज-कल तो सब के सब टीवी के दीवाने हुए
तुम्हारे दिल में जो ग़म बसा है तो मैं कहाँ हूँ
इक़रार किसी दिन है तो इंकार किसी दिन
वो जब देगा जो कुछ देगा देगा अपने वालों को
चराग़ों में अँधेरा है अँधेरे में उजाले हैं
किस को फ़ुर्सत कौन पढ़ेगा चेहरे जैसा सच्चा सच
फ़िक्र-ए-अहल-ए-हुनर पे बैठी है