उतर जाता तो रुस्वाई बहुत होती
कि सर का बोझ भी दस्तार जैसा था
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मिरे कुछ भी कहे को काटता है
हमें रास आनी है राहों की गठरी
और कुछ देर ग़म नज़र में रख
हादसात अब के सफ़र में नए ढब से आए
मैं सारे फ़ासले तय कर चुका हूँ
हमें देखा न कर उड़ती नज़र से
मिले अब के तो रोए टूट कर हम
हवस शामिल है थोड़ी सी दुआ में
सम्त दुनिया के हम गए ही नहीं
वही आँसू वही माज़ी के क़िस्से
गो ज़रा तेज़ शुआएँ थीं ज़रा मंद थे हम
समुंदर है कोई आँखों में शायद