है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें
उठवा के आँसुओं से दर-ओ-बाम दोश पर
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कल के दिन जो गिर्द मय-ख़ाने के फिरते थे ख़राब
दिल ख़ूँ है ग़म से और जिगर यक न-शुद दो शुद
उल्फ़त में तिरी ऐ बुत-ए-बे-मेहर-ओ-मोहब्बत
रह-रवाँ कहते हैं जिस को जरस-ए-महमिल है
इस लब से रस न चूसे क़दह और क़दह से हम
मेरी गो आह से जंगल न जले ख़ुश्क तो हो
दिला उठाइए हर तरह उस की चश्म का नाज़
जो चश्म-ओ-दिल से चढ़ा दूँ नाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश
ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं
ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था
क्या तुझ को लिखूँ ख़त हरकत हाथ से गुम है
सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है