है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें
उठवा के आँसुओं से दर-ओ-बाम दोश पर
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सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है
इस लब से रस न चूसे क़दह और क़दह से हम
नर्गिस-ए-मस्त तिरी जाए जो तुल बरसर-ए-गुल
ऐ इश्क़ तू हर-चंद मिरा दुश्मन-ए-जाँ हो
देख आईना जो कहता है कि अल्लाह-रे मैं
ये रिंद दे गए लुक़्मा तुझे तो उज़्र न मान
मेरी गो आह से जंगल न जले ख़ुश्क तो हो
जो तुम और सुब्ह और गुलनार-ए-ख़ंदाँ हो के मिल बैठे
ख़्वाहिश-ए-सूद थी सौदे में मोहब्बत के वले
ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था
दिल ख़ूँ है ग़म से और जिगर यक-न-शुद दो-शुद
इश्क़ ने मंसब लिखे जिस दिन मिरी तक़दीर में