कहते कहते कुछ बदल देता है क्यूँ बातों का रुख़
क्यूँ ख़ुद अपने-आप के भी साथ वो सच्चा नहीं
Anwar Masood
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Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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Habib Jalib
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अबदियत
बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जमे कैसे अपना रंग
चुप-चाप सुलगता है दिया तुम भी तो देखो
क़र्ज़
पता नहीं वो कौन था
ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए
जब छाई घटा लहराई धनक इक हुस्न-ए-मुकम्मल याद आया
क्या क्या लोग ख़ुशी से अपनी बिकने पर तय्यार हुए
कोई सनम तो हो कोई अपना ख़ुदा तो हो
करोगे याद तो हर बात याद आएगी
आहट पे कान दर पे नज़र इस तरह न थी
तेज़ हवाएँ आँखों में तो रेत दुखों की भर ही गईं