दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है
जो भी गुज़रा है उस ने लूटा है
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नज़र से गुफ़्तुगू ख़ामोश लब तुम्हारी तरह
ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं
वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
मिरी नज़र में ख़ाक तेरे आइने पे गर्द है
मैं जब सो जाऊँ इन आँखों पे अपने होंट रख देना
उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ
पत्थर के जिगर वालो ग़म में वो रवानी है
लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख जाए
आशिक़ी में बहुत ज़रूरी है
रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा