लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
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मैं तमाम तारे उठा उठा के ग़रीब लोगों में बाँट दूँ
ख़ुदा की इतनी बड़ी काएनात में मैं ने
ये शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तिरी आरज़ू तिरी जुस्तुजू में भटक रहा था गली गली
नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
सुनाते हैं मुझे ख़्वाबों की दास्ताँ अक्सर
बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी
अजब चराग़ हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
सब लोग अपने अपने ख़ुदाओं को लाए थे
न उदास हो न मलाल कर किसी बात का न ख़याल कर
इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी