वो चेहरा किताबी रहा सामने
बड़ी ख़ूबसूरत पढ़ाई हुई
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हयात आज भी कनीज़ है हुज़ूर-ए-जब्र में
अज़्मतें सब तिरी ख़ुदाई की
किसी की याद में पलकें ज़रा भिगो लेते
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
चराग़ों को आँखों में महफ़ूज़ रखना
न उदास हो न मलाल कर किसी बात का न ख़याल कर
इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
पिछली रात की नर्म चाँदनी शबनम की ख़ुनकी से रचा है
वो चाँदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
इसी शहर में कई साल से मिरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं
इस शहर के बादल तिरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं