वो इंतिज़ार की चौखट पे सो गया होगा
किसी से वक़्त तो पूछें कि क्या बजा होगा
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मिरी ज़बाँ पे नए ज़ाइक़ों के फल लिख दे
चाँद सा मिस्रा अकेला है मिरे काग़ज़ पर
वो माथा का मतला हो कि होंठों के दो मिसरे
मंदिर गए मस्जिद गए पीरों फ़क़ीरों से मिले
मैं यूँ भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूँ
सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें
हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
बड़े ताजिरों की सताई हुई
मिरी ज़िंदगी भी मिरी नहीं ये हज़ार ख़ानों में बट गई
उसे पाक नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे