ये परिंदे भी खेतों के मज़दूर हैं
लौट के अपने घर शाम तक जाएँगे
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सब लोग अपने अपने ख़ुदाओं को लाए थे
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
गुफ़्तुगू उन से रोज़ होती है
लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख जाए
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
सँवार नोक-पलक अबरुओं में ख़म कर दे
काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के
उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
ख़ुदा की इतनी बड़ी काएनात में मैं ने
रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
उस ने छू कर मुझे पत्थर से फिर इंसान किया
कहाँ आँसुओं की ये सौग़ात होगी