बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
हवस के नाम पर धागा नहीं है
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एक दुनिया ने तुझे देखा है लेकिन मैं ने
दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
हम से भली चाल चली चाँदनी
तुझ जैसा इक आँचल चाहूँ अपने जैसा दामन ढूँडूँ
अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
उन की गोद में सर रख कर जब आँसू आँसू रोया था
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था
देखने निकला हूँ दुनिया को मगर क्या देखूँ
उसे छत पर खड़े देखा था मैं ने
पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था