बदन के लोच तक आज़ाद है वो
उसे तहज़ीब ने बाँधा नहीं है
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अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था
जिस की हर बात में क़हक़हा जज़्ब था मैं न था दोस्तो
उन की गोद में सर रख कर जब आँसू आँसू रोया था
वो: एक
जब चौदहवीं का चाँद निकलता दिखाई दे
किधर जाऊँ कहीं रस्ता नहीं है
कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था
तुझ जैसा इक आँचल चाहूँ अपने जैसा दामन ढूँडूँ
नाम उस का
चाँद को रेशमी बादल से उलझता देखूँ