दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
ख़ुद से निकलूँ तो किसी और का रस्ता देखूँ
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सभी इंसाँ फ़रिश्ते हो गए हैं
बदन के लोच तक आज़ाद है वो
जिस की हर बात में क़हक़हा जज़्ब था मैं न था दोस्तो
मिरी भी मान मिरा अक्स मत दिखा मुझ को
वो: एक
तुम तो कुछ ऐसे भूल गए हो जैसे कभी वाक़िफ़ ही नहीं थे
देखने निकला हूँ दुनिया को मगर क्या देखूँ
दुखती है रूह पाँव को लाचार देख कर
मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
पड़ने लगे जो ज़ोर हवस का तो क्या निगाह
यूँ न जान अश्क हमें जो गया बाना न मिला
जो दिल में उस को बसाए वो और कुछ न करे