आप का ए'तिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे
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वो ज़माना भी तुम्हें याद है तुम कहते थे
क्यूँ वस्ल की शब हाथ लगाने नहीं देते
मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया
ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते
मोहब्बत का असर जाता कहाँ है
जो गुज़रते हैं 'दाग़' पर सदमे
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
मिरी आह का तुम असर देख लेना
शिरकत-ए-ग़म भी नहीं चाहती ग़ैरत मेरी
न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का
मुअज़्ज़िन ने शब-ए-वस्ल अज़ाँ पिछले पहर