हो चुका ऐश का जल्सा तो मुझे ख़त भेजा
आप की तरह से मेहमान बुलाए कोई
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बने हैं जब से वो लैला नई महमिल में रहते हैं
मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया
ब'अद मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
क्या लुत्फ़-ए-दोस्ती कि नहीं लुत्फ़-ए-दुश्मनी
तुम अगर अपनी गूँ के हो माशूक़
ये सैर है कि दुपट्टा उड़ा रही है हवा
तुम आईना ही न हर बार देखते जाओ
इस लिए वस्ल से इंकार है हम जान गए
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया
फिरे राह से वो यहाँ आते आते