उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है
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बड़ा मज़ा हो जो महशर में हम करें शिकवा
ज़ालिम ने क्या निकाली रफ़्तार रफ़्ता रफ़्ता
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं
ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते
वो जाते हैं आती है क़यामत की सहर आज
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
शब-ए-वस्ल भी लब पे आए गए हैं
छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर
क्या लुत्फ़-ए-दोस्ती कि नहीं लुत्फ़-ए-दुश्मनी
आओ मिल जाओ कि ये वक़्त न पाओगे कभी
सर मेरा काट के पछ्ताइएगा