उन की फ़रमाइश नई दिन रात है
और थोड़ी सी मिरी औक़ात है
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मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है
जिस जगह बैठे मिरा चर्चा किया
उज़्र उन की ज़बान से निकला
सितम-ईजाद के अंदाज़-ए-सितम तो देखो
भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख कर वो ये कहते हैं
दिल ही तो है न आए क्यूँ दम ही तो है न जाए क्यूँ
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए
मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं
होश आते ही हसीनों को क़यामत आई
शोख़ी से ठहरती नहीं क़ातिल की नज़र आज